aa mujhe rang de basanti...

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आ मुझे रंग दे बसंती कुछ कहानियां सच मं ज़िंदगी का रुख मोङ देती हैं शांत स्थिर मन को किंकर्तव्यविमूढ छोङ देती हैं एक ऐसी ही कहानी से मुलाकात हो गई कहानी तो वही छूट गई पर भावनाएं साथ हो गई ये कहानी है उन चंद स्तंभों की जिन्होने एक साथ अतीत् और् वर्तमान् का रुख् मोड् दिआ कर गए कुछ ऐसा कि अतीत और वर्तमान् को एक मोङ पर ला कर छोङ दिआ.. भगत,चंद्रशेखर,राजगुरु,अश्फाक,दुर्गा... आज से पहले ये आज़ादी के चेहरे हुआ करते थे.. आज चरित्र बन गए.... वो चरित्र जो आज़ादी के नये चेहरों को चरितार्थ करते हैं आज़ादी ज़िस्म की नही विचारों की होती है इसे यथार्थ करते हैं. क्योकि अगर ज़िस्म नपुंसक बन जाए फिर भी दुनिया का गुज़ारा चल जाता है लेकिन अगर विचार नपुंसक बन जाएं तो आदमी अपने ही देश में गुलाम बन जाता है उन चरित्रों का खून एक बार फिर चला रंग दे बसंती के चोलों का लहू एक बार फिर बहा लेकिन ये खून सिर्फ़ जिस्म तक कहां रहने वाला था ये तो विचारों और पीढीयों को अपने रंग में रंगने वाला था मुझे नही पता उनका तरीका सही था या गलत जानने की गर्ज़ भी नही है क्योकि तरीकों से ज्यादा एहेमियत उसके पीछे की मंशा की है जिंदगी उसको समझ न पाए इतनी भी खुदगर्ज नही है शायद उन चरित्रों को यूहीं परदे पर मरना था इसी तरह जंग लग चुकी इस पीढी को जगना था हां,एक नया खून,एक नयी पीढी फिर से तैयार है अपने विचारों की नयी जंग लडने को और् एक बार फिर से कहने को आ मुझे रंग दे बसंती.............